सबद-56
अन्योक्ति वंचक प्रकरण
अन्योक्ति वंचक प्रकरण
नर को नहिं परतीत हमारी।
झूठा बनिज कियो झूठे सों, पूँजी सभन मिलि हारी।।
खट दरसन मिलि पन्थ चलायो, तिरदेवा अधिकारी।
राजा देस बड़ो परपंची, रैयत रहत उजारी।।
इतते ऊत ऊतते इत रहु, जम की साट सवारी।
ज्यौं कपिडोर बांधि बाजीगर, अपनी खुसी परारी।।
इहै पेड़ उतपति परलै का, बिखया सभै बिकारी।
जैसे स्वान अपावन राजी, त्यों लागी संसारी।।
कहैं कबीर यह अदबुद ग्याना, को माने बात हमारी।
अजहूँ लेऊॅं छुड़ाय काल सो, जो करे सुरति संभारी।।
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