सबद-52

अन्योक्ति योग प्रकरण

बूझि लीजै ब्रह्म ग्यानी।
धुरि-धुरि बरसा बरसावै, परिया बुंद न पानी।।
चिउंटी के पग हस्ती बांधो, छेरी बीगर खावै।
उदधि मांह ते निकरि छांछरी, चैरे ग्रेह करावै।।
मेढुक सरप रहत एक संगे, बिलैया स्वान बियाई।
नित उठि सिंघ सियार सों डरपै, अद्बुद कथो न जाई।।
कौने ससा म्रिगा बन घेरे, पारथ बानन मेलै।
उदधि भूप ते तरिवर डाहै, मच्छ अहेरा खेलै।।
कहैं कबीर यह अद्बुद ग्याना, को यहि ग्यानहिं बूझै।
बिनु पंखी उडि़ जाय अकासै, जीवहिं मरन न सूझै।।

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